Thursday, June 30, 2011

दलित अस्मिता में प्रकाशित मेरी कविता
मैं
हवा की अंगुली थाम
तुम्हारे पास ही नहीं
भीतर भी आना चाहती हूँ
तुम्हें छूना ही नहीं
महसूसना भी चाहती हूँ
सुना है
पढ़ा भी है
ओ गगन!
तुम्हारी अनंत ऊँचाई में
हवा का भी
कोई स्थान नहीं
मैं
पानी की धार बन
तुम्हारे पास ही नहीं
भीतर भी आना चाहती हूँ
सिर्फ तुम्हे ही भिगोना नहीं
खुद भी भीगना चाहती हूँ
तुम्हें ही गीला करना नहीं
खुद भी तर होना चाहती हूँ
सुना है
पढ़ा भी है
देह में
आधे से ज्यादा, पर
पूरे से कम
पानी होता है
और धारा का भी
यही हाल होता है
सुना है
पढ़ा भी है
धरा भी
अपने खूब भीतर
पानी नहीं
लावा ही बहाती है
करती है अति
प्रकृति भी
संतुलन है बना लेती
फिर भी
सो
काट फेंके हैं
अपनी देह से
मोर के वे पंख
जो भरने नहीं देते थे
स्वतंत्र उड़ान
उन्मुक्त गगन में
बल्कि
आमंत्रित करते थे
शिकारी को
मेरे ही शिकार के लिए
मैंने तोड़ दिए हैं
वे पर्फुमड रिश्ते
जो रिसते थे
गंधाते थे
बन मवाद
मेरे ही भीतर
नासूर बन बैठे थे
प्रकृति से लेकर दीक्षा
मैंने ले ली शिक्षा
मैं मानवता की चाह लिए
सम्यक मार्ग पर चलना चाहती हूँ.