i would rather be a cyborg than a goddess. Donna Haraway- आखिर क्या कारण हैं कि एक स्त्री यह घोषणा कर रही है कि वह एक रोबोट बनना पसंद करेगी बजाय देवी बनने के. इस घोषणा को व्यापक समर्थन भी मिला है और पिछले दशकों में प्रोफ़ेसर डोना हरावे की यह उक्ति बहुधा उद्धृत होती रही. सिमोन द बोउवार के ग्रन्थ द सेकंड सेक्स के पश्चात अकादमिक जगत में सर्वाधिक चर्चित इस उक्ति की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ गई? निश्चित तौर पर स्त्री को घर परिवार में वह स्थान प्राप्त नहीं हो पाया जो अपेक्षित था. कल्पना शर्मा हों या सुनीता विलियम्स, निरुपमा राव हों या हिलेरी क्लिंटन या और भी ऐसे नाम जो विकास में सीधे तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं, बावजूद इसके पंद्रहवीं जनगणना में छह वर्ष से कम आयु के प्रति 1000 पुरुषों पर 914 स्त्रियों का अनुपात चिंता का विषय है.
08.03.2011 विश्व महिला दिवस का शताब्दी वर्ष. एक सदी में महिलाओं ने कितनी प्रगति की?- इस प्रश्न के उत्तर में क्या-क्या कहा जा सकता है? भारत की राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल हों या फिर ग्राम पंचायत की कोई भी महिला सदस्य, भारत में संवैधानिक व्यवस्था के चलते ही जितने भी अधिकार प्राप्त हो सके, हुए हैं. संवैधानिक व्यवस्था के चलते ही सामाजिक चेतना का विकास हुआ है. यही राजनितिक लोकतंत्र , सामाजिक लोकतंत्र की अवधारणा को पुष्ट करेगा, ऐसी आशा बंधती है.
भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में किसी भी अभिलेख में स्त्री की पहचान पिता अथवा पति के नाम से ही दर्ज होती है जबकि पुरुषों की पहचान के लिए माँ या पत्नी का नाम दर्ज नहीं होता है. यह भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूत करता है. जब हम समता की बात कर रहे हैं तो इस महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करना आवश्यक होगा. किसी भी तरह के सरकारी दस्तावेजीकरण में माता और पिता का नाम दर्ज किया जाना चाहिए. साथ ही पत्नी पर पति के उपनाम को धारण करने की सरकारी आवश्यकता को खारिज किया जाना चाहिए. इससे स्त्री की अपनी पहचान स्थापित करने के विचार पर ही मट्ठा पड़ जाता है और वह मानसिक अनुकूलन के तहत मानसिक ही नहीं भावात्मक गुलाम बनकर रह जाती है. मानसिकता के समक्ष कम से कम विचारों के आलोक की संभावना तो बनी रहती है पर भावात्मकता के समक्ष सारे हथियार और औजार भोथरे पड़ जाते हैं. इसलिए कानूनन स्त्री को पति का उपनाम धारण करने हेतु बाध्य नहीं किया जाना चाहिए.
हाँ, यह प्रश्न भी है कि फिर पहचान का क्या आधार हो? इस प्रश्न का उत्तर बहुत आसान है. जिस तरह से सरकारी सेवा में जाते हुए हमारा रक्त समूह, फिंगर प्रिंट्स जाना जाता है, उसे अभिलेख में दर्ज किया जाता है, ठीक इसी तरह से भारतीय पहचान निर्धारित होनी चाहिए. स्त्रियों की पहचान भारतीय नागरिक के तौर पर होनी चाहिए न कि प्रथमतः किसी की पत्नी अथवा बेटी के तौर पर. इस तरह से जिस जातिविहीन, वर्गविहीन, नस्लविहीन समाज की कल्पना करते हैं, वह पुष्ट होती है. इन्हीं सावधानियों के साथ हम स्वतंत्रता, समता और बंधुता पर आधारित समाज के निर्माण की ओर अग्रसर हो सकेंगे.
आपकी क्या राय है?