Saturday, September 17, 2011

‎'नीला रंग' शीर्षक से दो कवितायेँ लिखी है. उनमें से एक

नील
नीले रंग के
पड़ जाते थे
शरीर पर
मन पर
मार, बेगार
और अपमान के

याद है ना
गर्दन में लटकती
हंडी और
कमर में बंधी
झाड़ू की रस्सी से
झलझला उठते रक्त बिंदु

हरे जख्म लाल बंबाड
होते नीले फिर काले
और छोड़ जाते
अपने अमिट निशान
कर देते मन्
लहुलुहान

यूँ तो नहीं है आज
गले में हंडी
कमर में झाड़ू
फटे बांस का टुकड़ा
हाथों में
फिर भी
जाते क्यों नहीं
नीले निशान

Monday, August 29, 2011

एक लंबे समय बाद कुछ ठीक ठाक हास्य भाव पैदा हुआ. पता नहीं यह कहाँ पढ़ लिया -
एक चीता बीड़ी पीने की तैयारी कर रहा था कि चूहा आ गया. उसने चीते को समझाया कि नशा करना बुरी बात है. जंगल कितना खूबसूरत है, चलो देखें.  दोनों चल पड़े. थोड़ी दूर के बाद उन्हें हाथी मिला जो गांजा पीने की तैयारी कर रहा था. चूहे ने उसे भी समझया. अब तीनों जंगल देखने चल पड़े. थोड़ी दूर चलने पर एक शेर व्हिस्की पीने की तैयारी में दिखा. चूहे ने उसे भी समझाया पर शेर दो झापड उसे रसीद किये. हाथी ने शेर से मारने का कारण पूछा तो शेर ने बताया कि कल भांग खाकर यह चूहा मुझे चार घंटे जंगल घुमाता रहा.

Thursday, June 30, 2011

दलित अस्मिता में प्रकाशित मेरी कविता
मैं
हवा की अंगुली थाम
तुम्हारे पास ही नहीं
भीतर भी आना चाहती हूँ
तुम्हें छूना ही नहीं
महसूसना भी चाहती हूँ
सुना है
पढ़ा भी है
ओ गगन!
तुम्हारी अनंत ऊँचाई में
हवा का भी
कोई स्थान नहीं
मैं
पानी की धार बन
तुम्हारे पास ही नहीं
भीतर भी आना चाहती हूँ
सिर्फ तुम्हे ही भिगोना नहीं
खुद भी भीगना चाहती हूँ
तुम्हें ही गीला करना नहीं
खुद भी तर होना चाहती हूँ
सुना है
पढ़ा भी है
देह में
आधे से ज्यादा, पर
पूरे से कम
पानी होता है
और धारा का भी
यही हाल होता है
सुना है
पढ़ा भी है
धरा भी
अपने खूब भीतर
पानी नहीं
लावा ही बहाती है
करती है अति
प्रकृति भी
संतुलन है बना लेती
फिर भी
सो
काट फेंके हैं
अपनी देह से
मोर के वे पंख
जो भरने नहीं देते थे
स्वतंत्र उड़ान
उन्मुक्त गगन में
बल्कि
आमंत्रित करते थे
शिकारी को
मेरे ही शिकार के लिए
मैंने तोड़ दिए हैं
वे पर्फुमड रिश्ते
जो रिसते थे
गंधाते थे
बन मवाद
मेरे ही भीतर
नासूर बन बैठे थे
प्रकृति से लेकर दीक्षा
मैंने ले ली शिक्षा
मैं मानवता की चाह लिए
सम्यक मार्ग पर चलना चाहती हूँ.

Monday, April 4, 2011

manzilen abhee aur bhee hain

i would rather be a cyborg than a goddess. Donna Haraway- आखिर क्या कारण हैं कि एक स्त्री यह घोषणा कर रही है कि वह एक रोबोट बनना पसंद करेगी बजाय देवी बनने  के. इस घोषणा को व्यापक समर्थन भी मिला है और पिछले दशकों में प्रोफ़ेसर डोना हरावे  की यह उक्ति बहुधा उद्धृत होती रही. सिमोन द बोउवार के ग्रन्थ द सेकंड सेक्स के पश्चात अकादमिक जगत में सर्वाधिक चर्चित इस उक्ति की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ गई? निश्चित तौर पर स्त्री को घर परिवार में वह स्थान प्राप्त नहीं हो पाया जो अपेक्षित  था. कल्पना शर्मा हों या सुनीता विलियम्स, निरुपमा राव हों या हिलेरी क्लिंटन या और भी ऐसे नाम जो विकास में सीधे तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं, बावजूद इसके पंद्रहवीं जनगणना में छह वर्ष से कम आयु के प्रति 1000  पुरुषों पर 914 स्त्रियों  का अनुपात चिंता का विषय है.
08.03.2011 विश्व महिला दिवस का शताब्दी वर्ष. एक सदी में महिलाओं ने कितनी प्रगति की?- इस प्रश्न के उत्तर में क्या-क्या कहा जा सकता है? भारत की राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल हों या फिर ग्राम पंचायत की कोई भी महिला सदस्य, भारत में संवैधानिक व्यवस्था के चलते ही जितने भी अधिकार प्राप्त हो सके, हुए हैं. संवैधानिक व्यवस्था के चलते ही सामाजिक चेतना का विकास हुआ है. यही राजनितिक लोकतंत्र , सामाजिक लोकतंत्र की अवधारणा को पुष्ट करेगा, ऐसी आशा बंधती है.
भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में किसी भी अभिलेख में स्त्री की पहचान पिता अथवा पति के नाम से ही दर्ज होती है जबकि पुरुषों की पहचान के लिए माँ या पत्नी का नाम दर्ज नहीं होता है. यह भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूत करता है. जब हम समता की बात कर रहे हैं तो इस महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करना आवश्यक होगा. किसी भी तरह के सरकारी दस्तावेजीकरण में माता और पिता का नाम दर्ज किया जाना चाहिए. साथ ही पत्नी पर पति के उपनाम को धारण करने की सरकारी आवश्यकता को खारिज किया जाना चाहिए. इससे स्त्री की अपनी पहचान स्थापित करने के विचार पर ही मट्ठा पड़ जाता है और वह मानसिक अनुकूलन के तहत मानसिक ही नहीं भावात्मक गुलाम बनकर रह जाती है.  मानसिकता के समक्ष कम से कम विचारों के आलोक की संभावना तो बनी रहती है पर भावात्मकता के समक्ष सारे हथियार और औजार भोथरे पड़ जाते हैं. इसलिए कानूनन स्त्री को पति का उपनाम धारण करने हेतु बाध्य नहीं किया जाना चाहिए.
हाँ, यह प्रश्न भी है कि फिर पहचान का क्या आधार हो? इस प्रश्न का उत्तर बहुत आसान है. जिस तरह से सरकारी सेवा में जाते हुए हमारा रक्त समूह, फिंगर प्रिंट्स जाना जाता है, उसे अभिलेख में दर्ज किया जाता है, ठीक इसी तरह से भारतीय पहचान निर्धारित होनी चाहिए. स्त्रियों की पहचान भारतीय नागरिक के तौर पर होनी चाहिए न कि प्रथमतः किसी की पत्नी अथवा बेटी के तौर पर. इस तरह से जिस जातिविहीन, वर्गविहीन, नस्लविहीन समाज की कल्पना करते हैं, वह पुष्ट होती है. इन्हीं सावधानियों के साथ हम स्वतंत्रता, समता और बंधुता पर आधारित समाज के निर्माण की ओर अग्रसर हो सकेंगे.
आपकी क्या राय है?

Friday, January 28, 2011

ek gazal

बारिश सारी रात होती रही,
जाने किसकी याद में रोती रही.

जाने किसको सदा देती है वो,
टकरा के फलक से खोती रही.

दर्द ए कुदरत जाने कौन भला,
दामन शबनम से भिगोती रही.

इस जहाँ कि वो नहीं शायद,
मेरे गम से जो परेशां होती रही.

Wednesday, January 19, 2011

kitana aasan hai . . .

कितना आसन है किसी भी व्यक्ति को भुला देना. मृदुला गर्ग ने ठीक ही लिखा था कि जिस जगह पर हम खड़े हैं उस जगह पर बने रहने के लिए भी लगातार दौड़ना पड़ता है. आज स्नेह मोहनीश को लोग भुला चुके है. मेहरुन्निसा परवेज़, मंजुल भगत, मृदुला गर्ग की समकालीन  स्नेह मोहनीश हिंदी और बंगला में समान अधिकार से लिखने वाली रचनाकार कल १८ जनवरी २०११ को हमसे बिछुड़ गईं. उनकी तबियत ख़राब थी. बिलासपुर छत्तीसगढ़ के रेलवे विभाग में वे नौकरी करती थीं.  अपोलो अस्पताल में कल उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँस लीं.