Tuesday, November 7, 2017

अंधेरे में होता उजाला
हेमलता महिश्वर 
"उसने भौंहें समेट लीं। मेरी आँखों में आँखे डाल कर उसने कहना शुरू किया, ‘जो आदमी आत्‍मा की आवाज कभी-कभी सुन लिया करता है और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। आत्‍मा की आवाज को लगातार सुनता है, और कहता कुछ नहीं, वह भोला-भाला सीधा-सादा बेवकूफ है। जो उसकी आवाज बहुत ज्‍यादा सुना करता है और वैसा करने लगता है, वह समाज-विरोधी तत्‍वों में यों ही शामिल हो जाया करता है। लेकिन जो आदमी आत्‍मा की आवाज जरूरत से ज्‍यादा सुन करके हमेशा बेचैन रहा करता है और उस बेचैनी में भीतर के हुक्‍म का पालन करता है, वह निहायत पागल है। पुराने जमाने में संत हो सकता था। आजकल उसे पागलखाने में डाल दिया जाता है।"
मुक्तिबोध की ही कहानी है- क्लाड इथर्ली। इसमें भी वही गूँज है जो अंधेरे में है। एक केन्द्रीय स्वर है मुक्तिबोध के समूचे संसार में जो बार बार सिर उठाए फिरता है।
आज उत्तर आधुनिक समय में कितना आसान हो गया है कि लेखक मर गया है। पाठ है और पाठक है। इन दोनो के बीच से लेखक का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। पाठ के साथ सीधे तादात्म्य स्थापित करना यानी पाठ को अपने भीतर पुन: रचना। पाठक को बार बार शास्त्रीयता का अवलम्बन लेने की अनिवार्य आवश्यकता नहीं रह गई है। न केवल शास्त्रीयता अपितु रचनाकार से परे, उसके समय और समाज से परे आज में रचना का पाठ बिल्कुल नए आयाम खोलता है। जो पाठ कभी इकहरे होने का संकेत देता था, पाठक की संवेदना के साथ संश्लिष्ट होता हुआ दर रोज़ नए अर्थ का ख़ुलासा करता है।
मुक्तिबोध की मशहूर कविता का ऐसे ही समय में मैं पाठ कर रही हूँ। इस कविता में मुक्तिबोध कितने हैं, मैं नहीं जानती पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि इसमें मैं कितनी हूँ। और इसलिए इस कविता का विश्लेषण करते हुए आज तक जितने औजार इस्तेमाल किए गए, वे मेरे लिए बेमानी हैं। मैं यानी पाठक। मुक्तिबोध का मशहूर और पिटा पिटाया पद है-'ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान'। जब बारीक और महीनता के साथ इसे परखा जाता है तो एहसास होता है कि मुक्तिबोध बुद्ध के कितने क़रीब थे। बुद्ध के ज्ञान पद ही तो बार बार मुक्तिबोध को सम्यक् मार्ग की तरफ ठेलते हैं। सम्यक् मार्ग यानी 'ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान।' और इस पद से निसृत होता हुआ हुआ मनुष्य और उसका समाज। इस मनुष्य और समाज को बनाने के लिए आत्म अनुशासन की छड़ी। यानी - 'प्रज्ञा, शील, करूणा' यानी 'बुद्धि, धम्म, संघ' यानी 'समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व'। 
त्रिशरण की विवेचना के साथ मैं कविता में प्रवेश करूंगी। 
त्रिशरण का प्रथम शरण है - बुद्धं शरणं गच्छामि। इसका यह अर्थ क़तई नहीं कि मैं बुद्ध की शरण में जा रहा/रही हूँ।इसका अर्थ है - मैं बुद्धि की शरण में जा रहा/रही हूँ। बुद्धि यानी आस्थाओं से परे, मान्यताओं से परे, परम्पराओं से परे, रूढ़ियों से परे तर्क की दुनिया में प्रवेश करना। चूँकि हमारा समाज तरह तरह की मान्यताओं के साथ आज भी संचालित होता है इसलिए इस दुनिया के ऐसे बंधनों को तोड़कर तर्क की दुनिया में प्रवेश करना दुष्कर कार्य तो है ही। तर्क की दुनिया में प्रवेश करना ही अनावश्यक बंधनों को तोड़ देना है।
धम्मं शरणं गच्छामि - जब हम बुद्धि को साध लेते हैं, सत्यासत्य में भेद करना और सत् मार्ग पर चलने का बोध प्राप्त कर लेते हैं तब ही हम किसी भी तरह का आचरण करना सीख पाते हैं। इस आचरण को प्राप्त करना ही धम्मं शरणं गच्छामि का ध्येय है। हमारा आचरण हमारे चित्त की दशा का प्रतीक है। हम अपने भीतर जैसे होते हैं, वैसा ही अभिव्यक्त करते हैं। इसलिए हमें अपने आचरण को बुद्धि नामक तत्त्व से साधना होता है।
संघं शरणं गच्छामि - और जब हम अपने आचरण यानी व्यवहार का संतुलन प्राप्त कर लेते हैं तब इस योग्य होते हैं कि समाज के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत कर सकें। अकेले मनुष्य को धम्म की आवश्यकता नहीं है पर मनुष्य अकेला तो नहीं, दुकेला ही नहीं कई हैं। और जहॉं कई हैं वहाँ धम्म अनिवार्य है। समाज के समक्ष प्रस्तुत होने की साधना बड़ी कठिन है। 
समाज के समक्ष प्रस्तुत होना यानी निज की अभिव्यक्ति। निज की अभिव्यक्ति को लेकर समस्त जगत का आतप तापस। और यही मुक्तिबोध की चिंता का कारण है। आठ बंद और उस पर एक पुरोनी के साथ कविता 'अंधेरे में' पाठक के भीतर उजास की ओर प्रस्थान करती है। पहले बंद मे ही मुक्तिबोध अपने प्रिय पात्र की ओर से बात संवाद करते हैं। वे 'मनु' को साथ साथ लिए चलते हैं। चिंता में डूबा मनु अपने भीतर आशा का संचार करता हुआ काम वासना से गुज़रता श्रद्धा इड़ा के साथ खुद को संचालित करता, सुधारता निर्वेद आनंद तक जाता है। मुक्तिबोध का मनु चिंतित है। कामायनी की मूल समस्या मनु विषयक अपने निबंध में मुक्तिबोध अलग अलग कोणों से मनु को विश्लेषित करते हैं। मनु उनके अंतस्तल में पक्का घर बना कर बैठा है जो टलने की इच्छा नहीं रखता। कला का तीसरा क्षण भी मुक्तिबोध को हलकान किए हुए है। 
इस तीसरे क्षण को पाने के लिए कवि पहले आष्टांगिक मार्ग को खूब साधता है। पहला पूरा बंद तरह तरह से देखने की कोशिश है, ठीक से चिन्हने और फिर पतियाने की कोशिश है। सम्यक्‌ दृष्टि यानी सबको समान रूप से देखना। सब में ही खुद को शामिल करना, खुद के लिए कोई रियायत न बरतना- बहुत श्रमसाध्य होता है। और कितना श्रमसाध्य। यह पहला बंद दिखाता है। 

जब आत्म मंथन का दौर चल रहा हो तो हम वही स्वरूप आरोपित करते हैं, प्रतीक और बिंब ग्रहण करते हैं जैसा सोच रहे होते हैं। भौतिक और परा भौतिक दोनों ही जगत् हमारे मन का जैसे प्रतिबिंब बन उभरते हैं। तरह तरह की शक्लें मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति अपनी राह में पाती है और फिर उसे चिन्हता कवि कहता है- 

वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिमा।
तनाव पूरे समय कवि को जटिल पाश में जकड़े हुए है। भीड़ में तो रचनाकार अकेला होता ही है पर अकेले में वह खुद के साथ दुकेला होता है। दुकेला छत्तीसगढ़ी का बहुत मीठा शब्द है। कविता में इस शब्द का बडा सुनियोजित इस्तेमाल करता है। मराठी साहित्य को सरसरी तौर पर देखा जाए तो उपन्यास लेखन कला में चाहे विष्णु सखाराम खांडेकर हों या शिवाजी सावंत, अपने पात्रों के बारे में कहते नहीं हैं। उनके पात्र आत्म वार्ता करते हुए, अपनी तमाम परिस्थितियों का ख़ुलासा करते चलते हैं। 'ययाति' और 'मृत्युंजय' जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है। ययाति, देवयानी, शर्मिष्ठा हों या युधिष्ठिर, देवकी, कुंति, कृष्ण ही क्यों न हों। मराठी की कादम्बरी की इस शैली को मुक्तिबोध ने अपनी इस कविता में उतारा है। उनके भीतर की चेतना बारम्बार उनका दरवाज़ा खटखटाती है, अपने भीतर की आवाज को कोई अनसुना कर सका है भला। दूसरों के सामने ईमानदार होने का जामा चाहे कितनी ही ख़ूबसूरती के साथ पहन लिया जाए पर अपने सामने तो हम दिगम्बर ही होते हैं। यह दिगम्बरता बार बार हॉण्ट करती है,चोट पहुँचाती है। कितनी पीड़ा झेल रहा है यह संवेदनशील कि बच निकलने का कोई मार्ग नहीं रहा। जैसे मौत के क़रीब पहुँचे व्यक्ति को प्राणवायु मुँह से मुँह मिलाकर दी जाती है या प्रेम की अभिव्यक्ति में होंठों का स्पर्श जिस भूमिका में होता है, द्वंद्व इससे भी कठिन प्रक्रिया है। न रात देखता न दिन, समय कुसमय कभी भी फ़न काढ़कर बैठ जाता है-

कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही
बुलाता है - बुलाता है
हृदय को सहला मानो किसी जटिल
प्रसंग में सहसा होठों पर
होठ रख, कोई सच-सच बात
सीधे-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर
वही बात सुनकर धँस जाय मेरा जी -
इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?

यह द्वंद्व होता क्यों है? जिस आचरण को साधने की बात बुद्ध कह रहे है, जिस सम्यक् मार्ग पर चलने का आह्वान कर रहे हैं, जिसको मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान साधने को कह रहे हैं। बड़ी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं- 'आइना हँसने लगा और मुझे रोना आया। बरसों बाद मेरी खुद से मुलाकात हुई।' हम अपनी आलोचना करना तो चाहते हैं, हम अपनी कमियों को स्वीकार भी करना चाहते हैं पर कहीं क्या वह प्रगाढ़ भावावेश के वशीभूत तो नहीं! हम बहुत धीरे - धीरे अपनी बुराइयों या फिर कमज़ोरियों से स्वयं को दूर करने का प्रयास करते हैं। चूँकि सारी दुनिया शार्प और शार्ट कट लेकर सफलताओं को प्राप्त करना चाहती है ऐसे में मुक्तबोधों को दिक़्क़तों का सामना तो करना ही पड़ेगा। इन कमज़र्फ कमज़ोरों के वृहत्तर समाज मुक्तिबोधों के लिए आसान तो होता ही है कि वे भी सरल मार्ग के अनुगामी हों। 

लगता है-- दरवाजा खोलकर बाहों में कस लूँ, हृदय में रख लूँ घुल जाऊँ, मिल जाऊँ लिपटकर उससे परन्तु, भयानक खड्डे के अँधेरे में आहत और क्षत-विक्षत, मैं पड़ा हुआ हूँ,  शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ जरा भी (यह भी तो सही है कि कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)
इस बोध को लेकर वे सिविल लाइन की यात्रा कर रहे हैं। सिविल लाइन मतलब नगर का वह हिस्सा जहॉं सिविलाइज्ड लोग रहते है, नागरिक समाज का प्रतिनिधि जहॉं बसता है। पर सबसे ज़्यादा द्वंद्व भी क्या वहीं रहता है? सिविल सोसायटी को तॉल्सतॉय आवाज देता है पर आवाज कहीं पहुँचती नही जबकि राज्य शासन अपनी पूरी ताक़त से वहाँ मुस्तैद है। सैनिकों के अनुशासन के बावजूद कवि इस समाज को नंगा देखता है। यह नंगापन क्या है? गोपनीयता के नाम पर शासन आम जनता को जिस तरह से ठगता है, वह कुछ क्रोड़ में तो रहा नहीं फिर भी जनता असहाय है। आज सूचना का अधिकार प्राप्त होने के बाद शासन जिस बेशर्मी से नियमों की आड़ में अपनी ही जनता को निरावलम्ब करना चाहता है, किसी से छुपा नहीं है। भूमि अधिग्रहण क़ानून ताज़ा उदाहरण है। राज्य सत्ता लोक कल्याण के छद्म के पीछे स्वार्थ का भयंकर क्रूर चेहरा लिए हुए है। रचनाकार उस चेहरे को देखकर भयभीत है-
हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सजा मिलेगी।

बावजूद इसके अपना समानधर्मा वह ढूँढ ही लेता है। अपनी ही कहानी का पागलखाने में भर्ती कर दिए जाने वाला किरदार है वो जो मरे हुए देश समाज के लिए अपनी नींद गवाँ चुका है और चैन भुला चुका है-

हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन।
किंतु आज इस रात बात अजीब है।
वही जो सिर-फिरा पागल कतई था
आज एकाएक वह
जागृत बुद्धि है, प्रज्वलत् धी है।
छोड़ सिर-फिरापन,
बहुत ऊँचे गले से,
गा रहा कोई पद, कोई गान
आत्मोद्बोधमय !!

फिर से अपनी संवेदना के मोहपाश में मुक्तिबोध यहाँ ऊपर प्रस्तुत कहानी के अंश की पद्यात्मक रचना कर रहे हैं। यह तो उनके बाद की रचना है पर वे अपने संपूर्ण जीवनकाल में आत्म के निरंतर प्रक्षालन में लगे रहे। अपनी रचना के माध्यम से औरों को लगाए रखा। कविता के इसी हिस्से में दिल्ली और उज्जैन का उल्लेख कर दोनो ही नगरों के राजनैतिक महत्व की तरफ भी इशारा करता है।

विनायक सेन हों या इरोम शर्मिला कि सोनी सोढ़ी आत्म का बोध नोम चॉम्स्की को संवादी बिठाने के लिए बाध्य करता है। पूरा छठा बंद गांधी को समर्पित है जिसमें चोरी से तिलक ने भी सेंध मार ली है। मोहनदास करमचंद गांधी की सक्रिय उपस्थिति की मौत भी तो अंधेरा है जो मर गया देश की दुहाई देता है। गांधी नामक पात्र एक भविष्य, आज़ादी सुरक्षित हाथों को सौंपना चाहता है, अपनी विरासत को संभालने योग्य पात्र तलाशता भी है तो कहॉं, वही पागल(?)

एकाएक उठ पड़ा आत्मा का पिंजर
मूर्ति की ठठरी।
नाक पर चश्मा हाथ में डंडा, 
कन्धे पर बोरा हाथ में बच्चा।
आश्चर्य!! अद्भुत ! यह शिशु कैसे!!
मुसकरा उस द्युति-पुरूष ने कहा तब-
"मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था।
सँभालना इसको, सुरक्षित रखना"

राजशाही, सामंतशाही, औपनिवेशिक काल के बाद स्वतंत्रता की चुप और सोयी हुई नहीं रह सकती। राजशाही, सामंतशाही, औपनिवेशिकता अपना बल पर देश राज्य में चुप्पी क़ायम करवा सकती है पर इसके बाद हासिल की हुई स्वतंत्रता आंदोलन को ही जन्म देगी। इस स्वतंत्रता से चुप रहने या सोने की उम्मीद करना बेमानी है। आंदोलन जीवंतता का प्रतीक है। सॉंस लेना भी हमारे जीवित होने का परिचायक है इसी तरह स्वतंत्रता भी देश समाज के निरंतर विकास का प्रतीक है। मुक्तिबोध को सौंपा गया यह शिशु रोता है और मुक्तिबोध को छोड़कर कहीं चला जाता है। हम सतत् प्रयासरत हैं कि स्वतंत्रता के सही अर्थों को प्राप्त कर सकें।
यह भी आश्चर्यजनक है कि मुक्तिबोध ने इस पूरे गंभीर चिंतन के बाद इन पंक्तियों को क्यों लिखा -
किन्तु अचानक झोंक में आकर क्या कर गुज़रा कि
सन्देहास्पद समझा गया और
मारा गया वह बधिकों के हाथों।
मुक्ति का इच्छुक तृषार्त अन्तर
मुक्ति के यंत्रों के साथ निरंतर
सबका था प्यारा।
अपने में द्युतिमान।
मर गया एक युग,
मर गया जीवनादर्श!!

क्या ऐसा कहते हुए मुक्तिबोध अतिशय भावुकता का शिकार हो गए थे कि गांधी की धीरे धीरे प्रौढ़ होती विचारधारा में 'अचानक झोंक' दिखाई दी? क्या इस झोंक को ही वे दिशाभ्रम सिद्ध करना चाहते हैं?
और इस छलनामयी राजनीति के दौर में कवि अभिव्क्ति के ख़तरे उठाने का आह्वान करता है और गढ़ और मठ को तोड़ने का मानो बीड़ा उठाता है। वह रचनाकारों से संवाद स्थापित करता है। मराठी के दलित कवि का. रा. वाल्देकर अपनी एक कविता में लिखते हुए अवंतिका नगरी की सीमा पर बैठी उन तीन औरतों के बाबत् विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित कवि से सवाल करते हैं जो मरे हुए बैल की खाल छिल रही है। कवि प्रश्नकर्ता की तरफ अजनबीयत भाव से देखता है और अपने पुरस्कार समेट कर निकल लेता है। पुरस्कार से प्रतिष्ठित रचनाकार अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी का कैसे निर्वाह कर पाएँगे। "बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास" की घोषणा की जा चुकी है।

आष्टांगिक मार्ग के पहले मार्ग को, सम्यक दृष्टि को साधता कवि कह उठता है-
एकाएक फिर स्वप्न भंग
बिखर गए चित्र कि मैं फिर अकेला
मुक्तिबोध की रचना निश्चित तौर पर मनुष्य के अंतरतम की तलाश है। इस साफ, सुंदर, 'भवतु सब्ब मंगलम्' की तलाश जाने कवि को कहॉं कहॉं भटकाती है। पूरी रचना में कवि भटकते हुए अभिप्सित की तलाश में है। अभिव्यक्ति की तलाश से आरंभ है और अभिव्यक्ति की तलाश से अंत। ब्रह्म राक्षस को पुकारती पुकार भी जैसे अंधेरे में होने की अभिव्यक्ति है और उस अंधेरे से निकल भागने को आतुर है। मनुज का अनजाने में होनेवाला असावधान कर्म उसे व्याकुल नहीं करता, जान बूझकर, अधिकार प्रदर्शन करते हुए अपने अधिकारों की अघोषित बेशर्म सुरक्षा करते हुए जिस कार्य व्यापार को हम संपादित करते हैंवह उसके अपने अधिकारों की सुरक्षा तो कर ही लेता है, उसके अपने जीवन को तो पुख़्ता आधार दे जाता है पर न जाने कितने लोगों को निराधार बना जाता है। केवल एक मनुष्य क सर्वाधिकार सुरिक्षत होना समाज में असंतुलन पैदा करता है। पूँजीवाद, व्यक्ति स्वातंत्र्य को सीधे संबोधित करता कवि इन बेड़ियों को तोड़ने का आग्रही है।

अपनी बात को अपनी सारी रचनाओं में अलग अलग तरीके से एक के बाद एक नए-नए बिम्ब और प्रतीक ग्रहण करते हुए कवि बारम्बार स्वार्थपरता से मुक्त होने की अपील करता है। यह लड़ाई खुद के साथ लड़नी होती है। यह वे ख़ूबसूरती से जानते हैं कि कि हम पर शासन करने वाला दूसरा और कोई नहीं हम स्वयं होते हैं जो अपनी जायज़ और नाजायज़ इच्छाओं में कोई भेद न करते हुए सबके फलीभूत हो जाने की कामना करते हैं। इच्छा करना बुरा नहीं है, पर उनको दूसरों के माध्यम से पूरा करना ज़रूर बुरा है। इसलिए कामायनी का मनु उन्हें आकर्षित करता है। जीवन में दुख है- की घोषणा करते हुए बुद्ध अपनी कामनाओं पर सतत् अंकुश लगाने के उपदेश देते हुए समाज में सोद्देश्यपूर्ण जीवन गुज़ारते हैं। ज्ञान प्राप्त होने के बाद वे अन्य साधु सन्यासियों की तरह पर्वतों, गुफ़ाओं कन्दराओं में नहीं रहते, समाज में आते हैं और समाज को दुखों से मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। मुक्तिबोध भी द्वंद्व में रहने के कारण अवचेतन में उठनेवाले भावों काे अभिव्यक्त करते हैं और सघन प्रयास करते हैं कि रचना में वह सम्पूर्ण अभिव्यक्ति पा सके। मुक्तिबोध की रचनाएँ हर बार नए पाठ को प्रस्तुत करती हैं इसलिए सम्मोहावस्था में पाठक को बहा ले जाती है।

Saturday, September 17, 2011

‎'नीला रंग' शीर्षक से दो कवितायेँ लिखी है. उनमें से एक

नील
नीले रंग के
पड़ जाते थे
शरीर पर
मन पर
मार, बेगार
और अपमान के

याद है ना
गर्दन में लटकती
हंडी और
कमर में बंधी
झाड़ू की रस्सी से
झलझला उठते रक्त बिंदु

हरे जख्म लाल बंबाड
होते नीले फिर काले
और छोड़ जाते
अपने अमिट निशान
कर देते मन्
लहुलुहान

यूँ तो नहीं है आज
गले में हंडी
कमर में झाड़ू
फटे बांस का टुकड़ा
हाथों में
फिर भी
जाते क्यों नहीं
नीले निशान

Monday, August 29, 2011

एक लंबे समय बाद कुछ ठीक ठाक हास्य भाव पैदा हुआ. पता नहीं यह कहाँ पढ़ लिया -
एक चीता बीड़ी पीने की तैयारी कर रहा था कि चूहा आ गया. उसने चीते को समझाया कि नशा करना बुरी बात है. जंगल कितना खूबसूरत है, चलो देखें.  दोनों चल पड़े. थोड़ी दूर के बाद उन्हें हाथी मिला जो गांजा पीने की तैयारी कर रहा था. चूहे ने उसे भी समझया. अब तीनों जंगल देखने चल पड़े. थोड़ी दूर चलने पर एक शेर व्हिस्की पीने की तैयारी में दिखा. चूहे ने उसे भी समझाया पर शेर दो झापड उसे रसीद किये. हाथी ने शेर से मारने का कारण पूछा तो शेर ने बताया कि कल भांग खाकर यह चूहा मुझे चार घंटे जंगल घुमाता रहा.

Thursday, June 30, 2011

दलित अस्मिता में प्रकाशित मेरी कविता
मैं
हवा की अंगुली थाम
तुम्हारे पास ही नहीं
भीतर भी आना चाहती हूँ
तुम्हें छूना ही नहीं
महसूसना भी चाहती हूँ
सुना है
पढ़ा भी है
ओ गगन!
तुम्हारी अनंत ऊँचाई में
हवा का भी
कोई स्थान नहीं
मैं
पानी की धार बन
तुम्हारे पास ही नहीं
भीतर भी आना चाहती हूँ
सिर्फ तुम्हे ही भिगोना नहीं
खुद भी भीगना चाहती हूँ
तुम्हें ही गीला करना नहीं
खुद भी तर होना चाहती हूँ
सुना है
पढ़ा भी है
देह में
आधे से ज्यादा, पर
पूरे से कम
पानी होता है
और धारा का भी
यही हाल होता है
सुना है
पढ़ा भी है
धरा भी
अपने खूब भीतर
पानी नहीं
लावा ही बहाती है
करती है अति
प्रकृति भी
संतुलन है बना लेती
फिर भी
सो
काट फेंके हैं
अपनी देह से
मोर के वे पंख
जो भरने नहीं देते थे
स्वतंत्र उड़ान
उन्मुक्त गगन में
बल्कि
आमंत्रित करते थे
शिकारी को
मेरे ही शिकार के लिए
मैंने तोड़ दिए हैं
वे पर्फुमड रिश्ते
जो रिसते थे
गंधाते थे
बन मवाद
मेरे ही भीतर
नासूर बन बैठे थे
प्रकृति से लेकर दीक्षा
मैंने ले ली शिक्षा
मैं मानवता की चाह लिए
सम्यक मार्ग पर चलना चाहती हूँ.

Monday, April 4, 2011

manzilen abhee aur bhee hain

i would rather be a cyborg than a goddess. Donna Haraway- आखिर क्या कारण हैं कि एक स्त्री यह घोषणा कर रही है कि वह एक रोबोट बनना पसंद करेगी बजाय देवी बनने  के. इस घोषणा को व्यापक समर्थन भी मिला है और पिछले दशकों में प्रोफ़ेसर डोना हरावे  की यह उक्ति बहुधा उद्धृत होती रही. सिमोन द बोउवार के ग्रन्थ द सेकंड सेक्स के पश्चात अकादमिक जगत में सर्वाधिक चर्चित इस उक्ति की आवश्यकता आखिर क्यों पड़ गई? निश्चित तौर पर स्त्री को घर परिवार में वह स्थान प्राप्त नहीं हो पाया जो अपेक्षित  था. कल्पना शर्मा हों या सुनीता विलियम्स, निरुपमा राव हों या हिलेरी क्लिंटन या और भी ऐसे नाम जो विकास में सीधे तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं, बावजूद इसके पंद्रहवीं जनगणना में छह वर्ष से कम आयु के प्रति 1000  पुरुषों पर 914 स्त्रियों  का अनुपात चिंता का विषय है.
08.03.2011 विश्व महिला दिवस का शताब्दी वर्ष. एक सदी में महिलाओं ने कितनी प्रगति की?- इस प्रश्न के उत्तर में क्या-क्या कहा जा सकता है? भारत की राष्ट्रपति महामहिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल हों या फिर ग्राम पंचायत की कोई भी महिला सदस्य, भारत में संवैधानिक व्यवस्था के चलते ही जितने भी अधिकार प्राप्त हो सके, हुए हैं. संवैधानिक व्यवस्था के चलते ही सामाजिक चेतना का विकास हुआ है. यही राजनितिक लोकतंत्र , सामाजिक लोकतंत्र की अवधारणा को पुष्ट करेगा, ऐसी आशा बंधती है.
भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में किसी भी अभिलेख में स्त्री की पहचान पिता अथवा पति के नाम से ही दर्ज होती है जबकि पुरुषों की पहचान के लिए माँ या पत्नी का नाम दर्ज नहीं होता है. यह भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूत करता है. जब हम समता की बात कर रहे हैं तो इस महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करना आवश्यक होगा. किसी भी तरह के सरकारी दस्तावेजीकरण में माता और पिता का नाम दर्ज किया जाना चाहिए. साथ ही पत्नी पर पति के उपनाम को धारण करने की सरकारी आवश्यकता को खारिज किया जाना चाहिए. इससे स्त्री की अपनी पहचान स्थापित करने के विचार पर ही मट्ठा पड़ जाता है और वह मानसिक अनुकूलन के तहत मानसिक ही नहीं भावात्मक गुलाम बनकर रह जाती है.  मानसिकता के समक्ष कम से कम विचारों के आलोक की संभावना तो बनी रहती है पर भावात्मकता के समक्ष सारे हथियार और औजार भोथरे पड़ जाते हैं. इसलिए कानूनन स्त्री को पति का उपनाम धारण करने हेतु बाध्य नहीं किया जाना चाहिए.
हाँ, यह प्रश्न भी है कि फिर पहचान का क्या आधार हो? इस प्रश्न का उत्तर बहुत आसान है. जिस तरह से सरकारी सेवा में जाते हुए हमारा रक्त समूह, फिंगर प्रिंट्स जाना जाता है, उसे अभिलेख में दर्ज किया जाता है, ठीक इसी तरह से भारतीय पहचान निर्धारित होनी चाहिए. स्त्रियों की पहचान भारतीय नागरिक के तौर पर होनी चाहिए न कि प्रथमतः किसी की पत्नी अथवा बेटी के तौर पर. इस तरह से जिस जातिविहीन, वर्गविहीन, नस्लविहीन समाज की कल्पना करते हैं, वह पुष्ट होती है. इन्हीं सावधानियों के साथ हम स्वतंत्रता, समता और बंधुता पर आधारित समाज के निर्माण की ओर अग्रसर हो सकेंगे.
आपकी क्या राय है?

Friday, January 28, 2011

ek gazal

बारिश सारी रात होती रही,
जाने किसकी याद में रोती रही.

जाने किसको सदा देती है वो,
टकरा के फलक से खोती रही.

दर्द ए कुदरत जाने कौन भला,
दामन शबनम से भिगोती रही.

इस जहाँ कि वो नहीं शायद,
मेरे गम से जो परेशां होती रही.