Monday, December 27, 2010

meri kavita

अनामिका जी के काव्य संग्रह "खुरदुरी हथेलियाँ" की कविता 'बेजगह' तथा 'डाक टिकट' को पढ़ते हुए मैंने प्रेरित होकर कविता लिखी -
हिम्मत  
ओ लड़की!
लडकियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं
उनका कोई घर नहीं होता..

तभी तो
हर घर में समा जाती हैं
रोज रगड़कर निकालो चाहे
फिर आकर बस जाती हैं

प्रकाश चौंधियाता है सबको
धूप तो चुपके से आ जाती है
तूफ़ान कहर मचाता चाहे
हवा तो सहला जाती है
घर सहारा ले खड़ा होता है
मिट्टी तो छब जाती है

क्या हवा, धूप, मिट्टी बांध लोगे
सुनूँ तो ज़रा
कैसे bandh लोगे


ऍफ़. आई.आर.
मैं तो नन्ही- सी
नाजुक पतली - सी
टिकट हूँ ना
तुम तो
बहुत बहुत बड़े
मजबूत और खूबसूरत
कागज़ के लिफाफे हो
तुम्हें स्वीकारता नहीं कोई
बेनूर, बेरंग हो जाते हो
और फिर बैरंग
लौट आते हो
बगैर मेरे.
नन्ही मैं
तुम्हें पूरापन दे देती हूँ
तुमको सम्मान
खुद सटकर  दे देती हूँ.
बच्चे भी
अलग करते तुमसे मुझको
सहेज लेते मुझे
फेंक देते तुमको
क्या इसलिए बस
डरते हो?
विदीर्ण कर देते मुझको
बच्चे जब छुडाते
तुमसे अस्तित्व मेरा
तुम मजबूत
खूबसूरत कागज़ के लिफाफे
मेरे साथ
आने के पहले ही 
उधेड़ देते हो
मुझको!
पता है ना तुमको
सिल ठप्पा लगने के बाद
यूज्ड करार दी जाती हूँ
मेरा
जबरदस्ती दुबारा इस्तेमाल
अपराध की श्रेणी में आता है
ये तुम्हारे ही
भाई बंधुओं को समझ
क्यों नहीं आता है

3 comments:

  1. डाक टिकट तो गम हो रहे हैं. उनकी याद में कविता अच्छी लगी .

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  2. Apki Dak Ticket Kavita bahut achchhi lagi. Ticket ke sath stri ki mahatta / wazud ko bahut khubsurat tarike se varnit kiya gaya hai, iske liye Aap badhai ke patra hai............

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